एशियाई खेलों का आरंभ 1951 में हुई जिसमें र्सिफ संपूर्ण एशियाई देश इस विशाल खेल का हिस्सा बनते है। पहली बार इस खेल का आयोजन भारत ने किया था। प्रत्येक 4 साल के बाद इस खेल का आयोजन किया जाता है जिसमे अनेकों प्रकार की खेल सम्मिलित होती है। एशियाई देशों मे खेलों के प्रति प्रतिस्प्रर्धा का कायम रखना इसका प्रमुख उददेश्य है। प्रत्येक प्रतियोगिता के विजेताओं को सम्मान के रूप मे प्रथम स्थान प्रप्ताकर्ता को स्वर्ण पदक, दुसरे को रजत और तीसरे विजेता को कांस्य पदक दिये जाते है।
वर्ष 2018 में 18वें एशियाई खेलों का आयोजन संपन्न हो चुका है। इस बार का 18वें एशियाई खेलों की मेजबानी इण्डोनेशिया का शहर जकार्ता ने किया था। 45 प्रतिभागी देशों के 465 खिलाड़ी, 40 प्रकार के खेलों में भाग लिए। यह खेल 18 अगस्त से 2 सितंबर 2018 तक प्रतिभागीयों के बीच कड़ी स्र्पधा कायम रखी, वही दर्शकों के बीच रोमांचक महौल देखने को मिलें।
18वें एशियाई खेलों मे चीन 132 स्वर्ण, 92 रजत और 65 कांस्य के साथ कुल 289 जैसे विशाल पदकों का विजेता वाले देश के रूप मे प्रथम स्थान पर काबिज हुई्र है। अगर भारत की बात करे तों 15 स्वर्ण, 24 रजत और 30 कांस्य पदक के साथ कुल 69 पदकों के अनुसार अब तक की एशियाई खेलों में सर्वश्रेष्ठ प्रर्दशन कर 8वीं स्थान प्र्राप्त किया हैं। मैं मानता हू भारत इस खेल की पदक अंक तालिका मे चीन से काफी दूर है लेकिन वर्षो उपरांत इस खेल मे पदकों की सुखा झेल रही भारत जैसे विशाल देश को अपने खिलाड़ियों के प्रति उम्मिदें तो जगी। वही देश के खिलाड़ियों ने बढ चढ कर हिस्सा लिया और कई क्षेत्रों मे श्रेष्ठ बन कर उभरें। एशियाड में इस बार भारत को जैवलिन थ्रो, शॉटपुट, हेप्टाथलान, पुरुष 1500 मीटर और लाइट फ्लाइवेट मुक्केबाजी में एशियाई खेलों के इतिहास का पहला स्वर्ण पदक हासिल हुआ। राही सरनोबत इन खेलों की निशानेबाजी स्पर्धा में स्वर्ण जीतने वाली अब तक की पहली भारतीय महिला खिलाड़ी रहीं। भारत को 42 साल बाद कुश्ती में दो स्वर्ण मिलें वही इतने ही वर्षों बाद घुड़सवारी में रजत पदक हासिल हुआ। बैडमिंटन की स्पर्धा में भारत को 36 साल बाद पदक हासिल हुए। टेबल टेनिस में दो कांस्य पदक जीत कर भारत ने इस खेल में हार वाली सिलसिला को समाप्त किया। 36 साल बाद भारत को 800 मीटर के दौड़ में स्वर्ण पदक दिला कर मंजीत सिंह ने देश को गौरवांवित किया। इसी तरह दूती चंद ने महिलाओं की 100 मीटर और मोहम्मद अनस ने पुरुषों की 400 मीटर स्पर्धा में भारत को 32 साल बाद रजत पदक दिलाए। महिला हॉकी टीम ने 20 साल बाद रजत अपने नाम किया, भारतीय महिला हिमा दास ने 400 मीटर दौड़ में राष्ट्रीय रिकॉर्ड के साथ रजत जीता। इतना ही नहीं, नीरज चोपड़ा ने जैवलिन में शानदार प्रदर्शन करते हुए 88.06 मीटर का नया राष्ट्रीय कीर्तिमान बनाया। और तेजिंदर पाल सिंह तूर ने ओलंपिक स्तर का प्रदर्शन करके भविष्य के लिए उम्मीदें जगा दीं।
परिणाम स्वरूप भारत इन खेलों का अब तक का सबसे अच्छा प्रदर्शन करने में सफल रहा। कुल पदकों के मामले में उसने अब तक के अपने सबसे अधिक 69 पदक जीते, जबकि स्वर्ण पदक के मामले में 1951 के पहले एशियाई खेलों के 15 स्वर्ण पदकों की बराबरी की है। वही भारत ने पिछली बार से चार स्वर्ण और 14 रजत पदक अधिक जीते हैं।
लेकिन इस बार अफसोस की बात यह रही कि आमतौर पर सभी अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिताओं में कबड्डी में सब पर हावी रहने वाली भारत की पुरुष और महिला टीमों को इस बार स्वर्ण से वंचित रहना पड़ा। जबकि खासतौर पर कबड्डी में भारत को दुनिया भर में बादशाहत हासिल थी।
जाहिर है, इतने लंबे समय के बाद इस खेल में भारत की शानदार कामयाबी सबके लिए खुश होने की बात है। लेकिन इसके साथ यह भी ध्यान रखने की जरूरत है कि इतनी बड़ी आबादी वाला हमारा देश भाला फेंक जैसे खेलं में कोई पदक हासिल करने से बीते 36 साल तक वंचित क्यों रहा! इसका कारण भारत में खेल नीति का वह पक्ष है, जहां प्रतिभाओं की खोज और उनके प्रशिक्षण के पहलू पर बहुत ज्यादा काम नहीं किया जाता रहा है। इसके अलावा, जिन खेलों में भारत अपनी अच्छी-खासी मौजूदगी दर्ज करा सकता है, उनमें भी कई बार बेहद कमजोर उपस्थिति दिखती है। देश मे प्रतिभावान खिलाड़ीयों कि कमी नही है, ऐसे तमाम उदाहरण हैं, जिनमें दूरदराज या ग्रामीण इलाकों में मौजूद प्रतिभाएं जो किन्हीं वजहों से सामने आई है तो उन्हें बड़ी कामयाबी हासिल करने के लिए बहुत ज्यादा प्रशिक्षण की जरूरत नहीं पड़ी। सच तो यह है कि देश मे सभी खेलों के प्र्ति सकारात्मक महौल देने मे नीति नियंताओं ने भेदभव किया है। क्रिकेट जैसे खेल को जिस तरह बढ़ावा दिया गया, उससे देश भर में इस खेल को काफी लोकप्रियता मिली। यह अच्छी बात है। लेकिन अफसोस की बात है कि इस वजह से बाकी खेलों को इसके तुलना मे अपेक्षित महत्व नहीं मिल सका है। उसी का नतीजा है कि देश अंतराष्ट्रीय खेल पदकों से वंचित रह जाता है और देश मे खेल का मतलब क्रिकेट बन कर रह गया है।
अंतराष्ट्रीय खेलो मे भारत की स्थिती दयनीय बना हुआ हैं। भारत को चीन जैसे देश से कुछ सीखने की जरूरत है, जो 1949 मे आजाद होने के बाद 1952 के ओलिंपिक खेल मे एक भी पदक नही जीता था, लेकिन 32 साल बाद 1984 के ओलिंपिक में 15 स्वर्ण जीत लिया। जिसके बाद चीन खेल के रेस मे हमेशा बढत हासिल करते चला गया। आज हर ओलिंपिक मे सर्वश्रेष्ठ प्रर्दशन कर पूरे विश्व को अचंभित करते नजर आ रहा है। क्या वजह रही होगी? आपको कही ऐसा तो नही लगता है कि चीन के खिलाड़ी उस खेल के लिए ही इस धरती पर जन्म लिया होगा, जिसे जीतना तय था। अगर आप यह सोच रहे है तो हमारे ख्याल मे आप यह भी सोचने मे देर नही लगाया होगा की एक ना एक दिन भारत के खिलाड़ियों के साथ भी यह चमत्कार होकर रहेगा। धैर्य रखिए वैसे चमत्कार के लिए नही जो आपके ख्यालों की उपज है बल्कि उस समय के लिए जब हमारे देश मे भी चीन की तर्ज पर खेल को प्राथमिकता मे शामिल कर अपेक्षित परिणाम प्राप्त किया जा सकेगा। इसके लिए उचित होगा सरकार स्कूल स्तर से ही उचित मापदंडों के अनुकूल खेल को बढाबा देने का काम शूरू करे। आगे चलकर चयनित खिलाड़ियों के लिए उचित प्रशिक्षण, आधारभूत संरचना और खेल संबंधित संसाधनों के साथ योग्य अध्यापकों की आवश्कता की आपूर्ति कराया जाए।
दूसरी ओर कालेजों और विश्वविधालयों की बात करे तों यहां संसाधन तो हैं, लेकिन इच्छाशक्ति की घोर आभाव देखने को मिलती है। अर्थात रूची होने के बावजूद अरूची हावी रहती है, वजह है खेलों के प्रति उदासीन रवैया। आपको अक्सर देश के कोई न कोई हिस्सों मे किसी खेल के माध्यम से भारत का प्रतिनिधित्व किया हुआ खिलाड़ी अक़्सर अख़बार या न्यूज चैनलों पर देखने को मिलती होगी, जिसकी आर्थिक हालातों का जिक्र्र करते हुए उसकि दयनीय स्थिती की चर्चा की जाती है। जब तक खेलों मे नौजवानों को अपना भविष्य सुनिश्चित नजर नही आएगी, तब तक वे खेलों मे बढचढ कर हिस्सा लेने से दूर रहेंगे अरूचियां हावी नज़र आएगी। घर परिवार और समाज से भी भरपूर सहयोग की कमी खलेगी। इसमे दो राय नहीं कि खेलों के प्रति बदलतें नज़रिये से भारत आज काफी अच्छा प्र्रदर्शन कर रहा है, लेकिन अभी भी चुनौतियां बरकरार हैं। खेलों के समूचें विकास के लिए स्वच्छ व ईमानदार नीतियों के साथ रोजगार से जोड़ा जाना तय किया जाना चाहिए।
--Neeraj Kumar